Blog Archive

Friday, May 11, 2012

वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता


अक्‍कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि [अजिनी (?)] मं अहासि मे।
ये च तं उपनय्हन्ति, वेरं तेसं न सम्मति॥
अक्‍कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे।
ये च तं नुपनय्हन्ति, वेरं तेसूपसम्मति॥
न हि वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो॥
परे च न विजानन्ति, मयमेत्थ यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति, ततो सम्मन्ति मेधगा॥
उसने मेरा अपमान किया, मुझे मारा, मुझे हराया, मुझे लूटा- जो


ऐसा सोचते हैं, उनका वैर शान्त नहीं होता।

उसने मेरा अपमान किया, मुझे मारा, मुझे हराया, मुझे लूटा- जो
 
ऐसा नहीं सोचते, उनका वैर शान्त होता है।

वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अवैर से ही वैर शान्त होता है- 
 
चिरकाल से यह नियम चला आ रहा है।

वे यह नहीं जानते हैं कि यहाँ हम सब मृत्यु के निकट हैं। जो यह
 
जानते हैं उनके सारे झगड़े शान्त हो जाते हैं।

'He insulted me, hit me, beat me, robbed me' — for those who brood on this, hostility isn't stilled.


'He insulted me, hit me, beat me, robbed me' — for those who don't brood on this, hostility is stilled.

Hostilities aren't stilled
through hostility, regardless. Hostilities are stilled through non-hostility: this, an unending truth.

Unlike those who don't realize that we're here on the verge of perishing, those who do:
their quarrels are stilled.


Dhammpad (3-6)

No comments:

Post a Comment